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कवर्धा नगर पालिका "गरीब की झोपड़ी पर बुलडोज़र, अमीरों के कारनामों पर पर्दा"

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रवि ग्वाल कवर्धा-नगर पालिका की कार्यप्रणाली पर बड़ा सवाल एक ओर करोड़पति, जिन पर करोड़ों की ज़मीन हड़पने का आरोप है, चैन की नींद सो रहे हैं और महफ़िलें सजा रहे हैं। दूसरी ओर, रोज़ कमाने-खाने वाला गरीब, जिसने अपनी झोपड़ी के बराबर की दो गज ज़मीन पर परिवार के लिए छत डालने की कोशिश की, उस पर पालिका का बुलडोज़र गरज रहा है।


मामला कवर्धा कलेक्ट्रेट कॉलोनी के पीछे का है, जहाँ सरिता निषाद अपने पति और दो मासूम बच्चों के साथ झोपड़ी नुमा घर में रह रही थी। मंगलवार को नगर पालिका के नुमाइंदों और महिला पुलिस की दबंगई का आलम यह था कि सरिता अपने मासूम बच्चों संग रोती-बिलखती रही, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था। जमीन पर कब्जे की कार्रवाई के दौरान महिला पुलिस ने पीड़िता को जमीन में दबोच लिया।

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पीड़िता सरिता निषाद का आरोप-

"यह सरकारी ज़मीन है, लेकिन किसी बाहुबली खान की नज़र इस पर है। उनके इशारे पर ही आज मुझे बेघर किया जा रहा है।"

क्या यही है न्याय?

गरीब की झोली में सिर्फ़ आंसू और अमीर की झोली में सरकारी मेहरबानियाँ - यही है ‘कानून की नई परिभाषा’?

नगर पालिका की कार्यप्रणाली से तो यह सवाल उठता है-

क्या कानून अब ताक़तवर की जेब में रखा पॉकेट गाइड बन चुका है? क्या ‘करोड़पति’ होना अपराधों की पॉलिश है, और ‘गरीब’ होना सबसे बड़ा गुनाह?

विडंबना देखिए / करोड़ों की ज़मीन हड़पने वालों के लिए न नोटिस, न पुलिस, न बुलडोज़र। वहीं, मेहनतकश इंसान के सिर पर रखी चार ईंटें भी नगर पालिका को खटकने लगती हैं।


आख़िर इस कार्रवाई को क्या कहा जाए?

कानून की आँखों पर बंधी पट्टी या जेब में रखी नोटों की गड्डी?

नगर पालिका की यह ‘न्याय यात्रा’ अब सवाल बनकर हर गली-मोहल्ले में गूंज रही है।


"कानून सबके लिए बराबर है... पर कुछ के लिए और भी बराबर!"

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