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अख़बार व पुस्तकों लिया गया ज्ञान आप सभी के लिए कबीर साहेब प्राकट्य दिवस पर सादर प्रस्तुत।...




अख़बार व पुस्तकों लिया गया ज्ञान आप सभी के लिए कबीर साहेब प्राकट्य दिवस पर सादर प्रस्तुत।... वरिष्ठ पत्रकार राजू दास मानिकपुरी ।


साहेब के चरणकमल में साहेब बंदगी साहेब


कबीर साहब क्रांतदर्शी थे।


मोको कहाँ ढूंढे बंदे,मैं तो तेरे पास में,न मैं देवल न मैं मस्जिद, न काबे कैलाश में।

न तो कौने क्रियाकर्म में,न योग बैराग में।।


कबीर साहेब एक क्रांतदर्शी कवि थे,जिनके दोहों और साखियों में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। वे हिंदू और मुसलमानों के भेदभाव को नहीं मानते थे।

उनका कहना था कि राम और रहीम एक हैं। वे सामाजिक ऊंच-नीच को नही मानते थे।

उनके के लिए सब समान थे। वे एक क्रांतिकारी रचनाकार थे ।

उनकी यह क्रांतिकारी चेतना आर्थिक, सामाजिक भावों का परिणाम है। सामाजिक असमानता के शिकार और आर्थिक साधनों के अधिकार से वंचित निम्नवर्गीय लोगों की स्थिति देखकर उनका मन द्रवित हो उठा था।

धार्मिक कर्मकांडों और पाखंडो के विस्तार और रुढ़ियों ने उन्हें मंदिर प्रवेश की अनुमति प्रदान नहीं की थी। इन सभी कारणों ने उन्हें विद्रोही बना दिया। संत कवि सदाचरण पर अत्यधिक बल देते थे। उन्होंने वर्णाश्रम पर तीव्र प्रहार करके मनुष्य की उच्चता व निम्नता का मानदंड आचरण को माना, वर्ण को नहीं।

निसन्देह कबीर साहेब के लिए सदचारण का नियम ही धर्म की कसौटी थी और उनके द्वारा बनाये गए आधारित धर्म के मार्ग पर चल कर ही मनुष्य पाखंडो एवं आडंबरो से दूर हो सकता है वे ब्रम्हा आडम्बरों, मिथ्याचार एवं कर्मकांड के विरोधी थे।

जिस समय संत कबीर का आविर्भाव हुआ था, उस समय देश मे कई प्रकार की साधनाए प्रचलित थीं। बौद्ध धर्म का प्रभाव घट चुका था, उस समय नाथ-सिद्ध साधना का प्रचार बढ़ गया था और वह यद्यपि प्रारंभ में शरीर की निर्बलता और समय पर बहुत बल देती थी तथापि कालांतर में इसमें भी विकार आ गए थे।

सहज साधना के नाम पर कई प्रकार के जुगुत्सित आचारों का समावेश इन पदों में हो गया था। उस समय 'सहज' शब्द बहुत प्रचलित था जिनका आशय था इंद्रियों को वश में करके चित्त को परमात्मा में लीन कर लेना।

किन्तु इस सहज का जो रूप सहजसुख और महासुख की साधना के सामने आया,उसका रूप सामने कबीर ने इस प्रकार रखा-


सहज-सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्है कोई।

जिन्ह सहजै वियात जी,सहज कहौ जे सोई।।


निसन्देह मध्यकालीन समाज में व्याप्त आडम्बर मिथ्याचार एवं कर्मकांड आज भी किसी न किसी रूप में आधुनिक कहे जाने वाले इस समाज में विद्यमान है। इन समस्याओं का निदान संत कबीर साहेब के काव्य में ही है।

साहेब ने सिर्फ़ कर्मकांडों का ही विरोध नही किया, उन्होंने नाड़ी, वेदी, सबदी मौनी साधको की व्यथर्ता भी घोसित की। उन्होंने नारद भक्ति की हृदय साधना पर जोर दिया था।


नाड़ी वैदि सबदी, मौनी सम जकै पटे लिखाया।

भगति नारदी हीरै न आई,कादी कु छित नुदीनां।।


वे सामाजिक कुरुतियों को हटाना चाहते थे। वे परोपकार को महत्वपूर्ण मानते थे।

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